दोआबा न्यूज़लाईन (सम्पादकीय)
मनुष्य का चरित्र उसकी विभिन्न प्रवृत्तियों का समावेश है, उसके मन के समस्त झुकावों का योग है। हम वही हैं, जो हमारे विचारों ने हमें बनाया है। प्रत्येक विचार हमारे शरीर पर लोहे के टुकड़े पर हथौड़े…
म नुष्य का चरित्र उसकी विभिन्न प्रवृत्तियों का समावेश है, उसके मन के समस्त झुकावों का योग है। हम वही हैं, जो हमारे विचारों ने हमें बनाया है। प्रत्येक विचार हमारे शरीर पर लोहे के टुकड़े पर हथौड़े की हल्की चोट के समान हैं और उसके द्वारा हम जो बनना चाहते हैं, बनते जाते हैं। वाणी तो गौण है। विचार सजीव होते हैं, उनकी दौड़ बहुत दूर तक हुआ करती है। अत: तुम अपने विचारों के संबंध में सावधान रहो।
भलाई और बुराई, दोनों का चरित्र गठन में समान भाग रहता है और कभी-कभी तो सुख की अपेक्षा दुख ही बड़ा शिक्षक होता है। …विलास और ऐश्वर्य की गोद में पलते हुए, गुलाबों की शय्या पर सोते हुए और कभी भी आंसू बहाए बिना कौन महान हुआ है? जब हृदय में वेदना की टीस होती है, जब दुख का तूफान चारों दिशाओं में गहराता है, जब मालूम होता है कि प्रकाश अब और न दिखेगा, जब आशा और साहस नष्टप्राय हो जाता है, तभी इस भयंकर आध्यात्मिक झंझावत के बीच अंतर्निहित ब्रह्म-ज्योति प्रकाशित होती है…। यदि कोई मनुष्य निरंतर बुरे शब्द सुनता रहे, बुरे विचार सोचता रहे, बुरे कर्म करता रहे, तो उसका मन भी बुरे सस्कारों से पूर्ण हो जाएगा और बिना उसके जाने ही वे संस्कार उसके समस्त विचारों तथा कार्यों पर अपना प्रभाव डाल देंगे। असल में ये बुरे संस्कार निरंतर अपना कार्य करते रहते हैं। ये संस्कार उसमें दुष्कर्म करने की प्रबल प्रवृत्ति उत्पन्न कर देंगे। वह तो इन संस्कारों के हाथ एक यंत्र सा हो जाएगा।
इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य अच्छे विचार सोचे और अच्छे कार्य करे, तो उसके इन संस्कारों का प्रभाव भी अच्छा ही होगा तथा उसकी इच्छा न होते हुए भी वे उसे सत्कार्य करने के लिए विवश करेंगे। जब मनुष्य इतने सत्कार्य एवं सत-चिंतन कर चुकता है कि उसकी इच्छा न होते हुए भी उसमें सत्कार्य करने की एक अनिवार्य प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है, तब यदि वह दुष्कर्म करना भी चाहे, तो इन सब संस्कारों का समष्टि रूप उसका मन उसे वैसा करने से फौरन रोक देगा। तब वह अपने सत्संस्कारों के हाथ एक कठपुतली जैसा हो जाएगा। जब ऐसी स्थिति हो जाती है, तभी उस मनुष्य का चरित्र गठित या प्रतिष्ठित कहलाता है। यदि तुम सचमुच किसी मनुष्य के चरित्र को जांचना चाहते हो, तो उसके बड़े कार्यों पर से उसकी जांच मत करो। मनुष्य के अत्यंत साधारण कार्यों की जांच करो और असल में वे ही ऐसी बातें हैं, जिनसे तुम्हें एक महान व्यक्ति के वास्तविक चरित्र का पता लग सकता है। कुछ विशेष, बड़े अवसर तो छोटे से छोटे मनुष्य को भी किसी न किसी प्रकार का बड़प्पन दे देते हैं, परंतु वास्तव में बड़ा वही है, जिसका चरित्र सदैव और सब अवस्थाओं में महान रहता है।
मन में इस प्रकार के बहुत से संस्कार पड़ने पर वे इकट्ठे होकर आदत या अभ्यास के रूप में परिणत हो जाते हैं। कहा जाता है, आदत द्वितीय स्वभाव है, पर यही नहीं, वह प्रथम स्वभाव भी है और मुनष्य का सारा स्वभाव है। हमारा अभी जो स्वभाव है, वह पूर्व अभ्यास का फल है…। बुरी आदत का एकमात्र प्रतिकार है – उसकी विपरीत आदत। सभी खराब आदतें अच्छी आदतों द्वारा वशीभूत की जा सकती हैं। इसलिए सतत अच्छे कार्य करते रहो और सदा पवित्र विचार मन में सोचा करो। नीच संस्कारों को दबाने का यही एकमात्र उपाय है…।
हम रेशम के कीड़े के समान हैं। हम अपने आप में से ही सूत निकालकर कोष का निर्माण करते हैं और कुछ समय के बाद उसी के भीतर कैद हो जाते हैं। कर्म का यह जाल हम ने ही अपने चारों ओर बुन रखा है। अपने अज्ञान के कारण हमें यह प्रतीत होता है कि हम बंधे हुए हैं, और इसलिए सहायता के लिए हम रोते-चिल्लाते हैं, पर सहायता कहीं बाहर से तो नहीं आती, वह तो हमारे भीतर से ही आती है। चाहो, तो विश्व के समस्त देवताओं को पुकारते रहो, मैं भी बरसों पुकारता रहा और अंत में देखा कि मुझे सहायता मिल रही है, पर वह सहायता मिली भीतर से…।
हम क्यों गलतियां करते हैं? हमें अज्ञानी कौन बनाता है? हम स्वयं ही। हम अपनी आंखों को अपने हाथों से ढक लेते हैं और ‘अंधेरा है’, ‘अंधेरा है’ कहकर रोते हैं। हाथ हटा लो, तो प्रकाश ही प्रकाश है।